प्रश्न : गुरूजी, यह इतना सुंदर ज्ञान देने के लिए मैं आपका बहुत आभारी हूँ| मुझे बहुत जिज्ञासा होती है कि यह अंतर्दृष्टि कहाँ से आती है| जब मैं ध्यान करता हूँ कभी कभी इसके बाद शांत हो जाता हूँ और प्रभावकारी भी,परन्तु ब्रह्मांड के रहस्य अपने आप नहीं पता चलते| इसकी बजाय मैं इसी तरह के नाटक या आत्म सम्मोहन में फंस जाता हूँ| यह रास्ता मेरे लिए अच्छा है| इसका मुझे विश्वास है|परन्तु मुझ में धैर्य नहीं है|मुझे आपके प्रकृति और ईश्वर के बारे में कहे हुए शब्द शहद जैसे लागतें हैं जिनके लिए मुझे भूख है| क्या आप इसी विषय में कुछ कहेंगे| मैं प्रकृति के साथ गहरा सम्बन्ध महसूस करता था| आजकल मैं रोबोट की तरह महसूस करता हूँ| क्या मुझ में अनुग्रह नहीं रहा या कोई और बात है?
श्री श्री रवि शंकर : नहीं नहीं| मुझे लगता है आपके पास बहुत समय है| आप बैठकर अपने बारे में बहुत सोचते रहते हो| व्यस्त हो जाओ |
आप जानते हो जितना अच्छा काम आप करते हो, अपने आसपास सकरात्मक वातावरण और भाव बनाते हो| जब आप सकरात्मक भाव बनाते हो तो आपको अपने भीतर गहरे जाने में मदद मिलती है| यह आवश्यक है कि दूसरों का ध्यान रखा जाए और जो आप के पास है दूसरों के साथ बांटा जाए| जिस तरह भी आप कर सकते हो करो| किसी प्रोजेक्ट में शामिल हो जाओ| ध्यान करो| बैठ कर चिंता मत करो,'ओह आज मुझे यह अनुभव हुआ| कल क्या होगा|' यह तो आते जाते रहेंगे| आप इन सब अनुभवों से ज्यादा हो।
एक साधक को क्या करना होता है ,जो भी अनुभव हो, चाहे सबसे अच्छा अनुभव हो, को भी सवीकार करो और उसका समर्पण करो।स्वीकारना और समर्पण करना, दोनो ही ज़रुरी हैं।
यदि आप केवल त्यागने की कोशिश करते हो तो आप उनको रोकने की कोशिश कर रहे हो| यदि आप केवल स्वीकार करते हो तो आप उनको पकड़ लेते हो |
इसीलिए आपको दो हाथ दिए गए हैं| एक तरफ़ से आप स्वीकार करते हो और दूसरी तरफ़ आप समर्पण कर देते हो।यह अनुभव तो आते जाते रहतें हैं ,कोई बड़ी बात नहीं|

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