केन उपनिषद्
पृष्ठ ४९
अध्याय १०
शिव चेतना की चौथी अवस्था
उपनिषदं भो ब्रहीत्युक्ता त उपनिषदब्रह्मीं वाव त
उपनिषदमब्रूमेति ।।
मेरे प्रिय, तुमने मुझसे उपनिषद् के विषय में पूछा था इसलिए मैंने तुम्हें यह बताया है । वास्तव में मैंने तुम्हें उपनिषद् के बारे में बता दिया है । गुरु यह कहते हुए समाप्त करते हैं - ' मेरे प्रिय, तुमने मुझसे उपनिषद् के विषय में पूछा था इसलिए मैंने तुम्हें उपनिषद्, ब्रह्मी उपनिषद्- वह उपनिषद् जो
उस अनन्त ब्रह्म को व्यक्त करता है, उसके बारे में बता दिया है ।'
तस्यै तपो दम: कर्मेति प्रतिष्ठा वेदा: सर्वाड्गानि सत्यमायतनम् ।।
अब जब तुम्हें उपनिषद् के वह में पता चल गया है तो तुम्हें उस पर मनन करके उसे अपना बनाना होगा । यह ही सत्य है और तुम्हें यह महसूस होगा कि तुम उसको जी रहे हो । तुम्हें इस सजगता के साथ अपना जीवन जीना होगा । तपस, दम- तुम्हारा अपनी इंद्रियों से अंतर्मुखता की ओर जाना । अब तुम अपना इंद्रियों में फसने वाले नहीं हो, तुम्हारा इस पर स्वामित्व है । जब तुम्हें शांति की एक झलक मिल जाती है तो ऐसा सहज ही होता है ।
तुम अपार शक्ति का अनुभव करते हो और तुम्हारी इंद्रियों पर विजय होती है । तुम ऐसा नहीं करते कि ' ओह ! मैं असहाय हूँ ।' ऐसा कहकर अपने आप को असहाय अवस्था में मत लाओ । जागो और देखो यहाँ सत्य का निवास है । उस ब्रह्म की एक झलक तुम्हें बेहतर इन्सान बना देती है । तुम एक संकीर्ण मानसिकता वाले व्यक्ति नहीं बनते बल्कि तुम एक बेहतर और आत्म विश्वास से भरे इन्सान बन जाते हो । कोई कपटी इसलिए बनता है क्योंकि वह अपनी शक्तियों के प्रति जागरुक नहीं होता है । जब उसे यह लगता है कि वह कमजोर है तभी वह कपटी बनता है । जब तुम्हारे अंदर आत्म - विश्वास होता है तो तुम्हें यह पता होता है कि समस्त सृष्टि तुम्हारी है और तुम उसके स्वामी हो । तुम ब्रह्म हो, अनन्त का अंग हो और तुम भी वह ही हो । जब सब कुछ तुम्हारा है तो तुम्हें कपटीपन की आवश्यकता ही क्या है ? तुम अपने किसी अंग के लिए तो कभी कपटी नहीं होते हो । होते हो क्या ? यह असम्भव है । जब तुम इस ज्ञान में रहते हुए यह जान लेते हो तो तुम्हारे जीवन में सकुन आता है और तुम किसी भी चीज से भयभीत नहीं होते हो । तुम इसका अभ्यास करो ।
यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमन्ते स्वर्गे
लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति ।।
जो यह जान लेता है, वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है । उस अनन्त की अनुभूति से सारे पापों का नाश हो जाता है और तुम ज्ञान में स्थापित हो जाते हो और ऐसा सहज ही होता है । बिना किसी किसी प्रयास के ऐसा होता है । यहाँ पर यह जानना कि बिना किसी प्रयास के ऐसा होता है, यह महत्वपूर्ण है । अक्सर हम जब भी कोई व्याख्यान सुनते हैं तो हमें लगता है ' मुझे यह करना ही है । मुझे करना ही है' या ' हे ईश्वर ! मुझे ऐसा करना ही है ।' मैं कहता हूँ कि यह विचार त्याग दो । तुम्हें कुछ भी नहीं करना है । मैं जब तुमसे यह कहता हूँ कि तुम्हें कुछ भी नहीं करना है तो वास्तव में तुम्हें कुछ भी नहीं करना है । बहुत बार तुम कुछ ऐसा जैसे धूम्रपान , ड्रग्स या मदिरापान आदि करते हो, जो तुम्हें नहीं करना चाहिए । तुम ऐसा क्यों करते हो ? मैं कहता हूँ कि कुछ मत करो । कुछ भी मत करो । हम कुछ करने के लिए इसलिए कहते है क्योंकि तुम कुछ और ही कर रहे होते हो । यह ऐसा ही है जैसे कि एक काँटे को निकालने के लिए तुम दूसरे काँटे का उपयोग करते हो परंतु दूसरे काँटे को चुभाने की आवश्यकता नहीं है । तुम्हें दवाइयों की आवश्यकता तभी होती है जब तुम बीमार होते हो । तुम्हें कुछ करने को तभी कहा जाता है जब तुम्हें लगे कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है । कुछ मत करो ।

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