केन उपनिषद्
पृष्ठ ३९
अध्याय ०८
चमत्कारों से परे
प्रश्न : प्रिय गुरुजी, ऐसा कैसे संभव है कि आप अपना सौ प्रतिशत दें फिर भी आप दृष्टाभाव में बने रहें ? जब भी मैं किसी कार्य में अपना सौ प्रतिशत देता हूँ तो मेरा दृष्टाभाव चला जाता है और मैं दृश्य में खो जाता हूँ । कृपया बताये ।
श्री श्री : दोनों को अलग अलग समय पर करो । एक साथ करने का प्रयास मत करो और जब तुम दोनों में निपुण हो जाओगे तो तुम यह पाओगे कि दोनों के बीच की सीमा समाप्त हो गई है । वह अपने आप हो जायेगा । अभी तुम यह मूड़ मत बनाओं कि मैं दृष्टाभाव से काम कर रहा हूँ - " मैं अपने काम में पूरी तरह खो गया हूँ । नहीं, मुझे दृष्टाभाव में रहना है " इस तरह का मूड़ मत बनाओ । जो भी तुम कर रहे हो उसमें अपना सौ प्रतिशत दो और उस काम को करने से पहले और बाद में थोड़े समय के लिए दृष्टा को दृश्य से विस्थापित कर लो । न तो इसको छोड़ो न हीं उसको, दोनों में साथ - साथ आगे बढ़ो । ईशावास्य उपनिषद् में कहते हैं - ' जो इसमें अकेला जायेगा वह गहराई में जायेगा और जो उस अकेले में जायेगा वह और गहराई में जायेगा ।' मैं इस पर पहले भी बात कर चुका हूँ । यह बहुत ही अद्भुत उपनिषद् है । इसकी ग्यारह कड़िया हैं, चेतना के विज्ञान को इसमें बहुत अच्छी तरह समझाया है । इसको समझाने के लिए उचित व्याख्या करने वाला और अच्छा जानकार व्यक्ति चाहिए । अगर केवल तुम उसका अनुभव पढ़ोगे तो तुम्हें समझ नहीं आयेगा । उसमें जो मंत्र हैं वह गूढ़ है, उसे समझने के लिए विषय के जानकार व्यक्ति की सहायता चाहिए ।
प्रश्न : दिव्य प्रेम और रुमानी प्रेम में क्या अंतर है और एक प्रेम विवाह में, परिवार में किस तरह का प्रेम होना चाहिअ ? ये दोनों एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते है ?
श्री श्री : प्रेम के कई अंदाज है । मैंने नारद भक्ति सूत्र में विस्तार से बताया है । तुम उसको लेकर पढ़ो ।

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