केन उपनिषद्
पृष्ठ ३५
अध्याय ०८
चमत्कारों से परे
तीसरे अध्याय के अनुसार - सभी देवताओं का यश, ब्रह्म की विजय का परिणाम है । परंतु वे ( देवतागण ) ऐसा सोचन लगे, ' यह यश हमारा है ।' तुम्हारे भीतर जो भी गुण हैं, तुम्हें क्या लगता हैं वे तुम्हारे हैं ? नहीं । यह तुम्हें एक उपहार स्वरूप मिलें हैं । तुम्हारी वाणी यदि सुरीली है तो तुमने उसे प्राप्त करने के लिए कोई प्रयत्न किया है क्या ? नहीं, यह तुमको एक आशीर्वाद है । तुम्हारी संतान या धन तुम्हारे लिए कोई वरदान है या अभिशाप ? तुम्हारे पास धन है तो तुम्हें उससे आराम है लेकिन वह ही धन तुम्हारे लिए समस्या का कारण भी बन सकता है । तुम्हें यह भी पता नहीं चलता कि तुम्हारा सच्चा मित्र कौन है, अगर तुम्हारे पास धन न हो तो कम से कम तुम्हें यह तो पता चलेगा कि तुम्हारा सच्चा मित्र कौन है ।तुम्हारे पास धन हो तो तुम्हें यह भी नहीं पता चलेगा कि लोग तुम्हारे मित्र है या तुम्हारे धन के कारण उनकी मित्रता है ।
धन एक आशीर्वाद है । तुम्हारी वाणी एक आशीर्वाद है । तुम्हारी संतान एक आशीर्वाद है । इस जीवन में सब कुछ आशीर्वाद है - यह सब कुछ बहुत सूक्ष्म स्तर पर होता है । देवदूत यह सब कुछ बहुत सूक्ष्म स्तरपर करते हैं और जो कुछ भी तुम करते हो वह बस उसका बिम्ब मात्र है । तुम अचानक दु: खी या सुखी हो जाते हो और सोचते हो - ' ओह ! मैंने ऐसा कर दिया ' या ' मैंने वैसा कर दिया' तुम्हें इसका थोड़ा भी अनुमान नहीं लगता कि क्या हो रहा है । तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारे इस अल्प काल में सारी व्यवस्थाओं को नियंत्रित करने वाले तुम हो ? नहीं, यह सब एक बद्ध और स्थायी परिषद द्वारा शासित है और तुम केवल एक प्यादे हो । तुम तो खिलाड़ी हो ही नहीं । तुम्हें क्या लगता है कि तुम खिलाड़ी हो ? तुम बस एक प्यादे हो जिसे कोई और चला रहा है । एक प्यादा यह सोचता है - 'ओह ! देखो मैं घोड़े के सामने या हाथी या राजा के सामने चल रहा हूँ ।' ऐसा सोचना तुम्हारी भूल है, मेरे प्रिय । यह कोई और है जो तुम्हारी तरफ से चाल चल रहा है वास्तव में दोनों तरफ से चल रहा है । यह एक ही खिलाड़ी है जो दोनों तरफ से शतरंज की चालें चल रहा है ।
तो, यह ब्रह्म की विजय है । परंतु देवताओं को यह लगता है कि यह उनकी विजय है क्योंकि दिव्य प्राण जैसे देवी या देवता भी इससे पूर्णत: मुक्त नहीं है । उनकी भी अपनी कामनायें और लक्ष्य हैं । वह भी संपूर्ण प्राणी नहीं है । इसलिए कुछ समय तक देवता का जीवन व्यतीत करने के बाद उन्हें वापस मनुष्य योनि में आना पड़ता है, मुक्त होने के लिए । इसलिए कहते हैं मनुष्य का जन्म सबसे अमूल्य है, देवताओं से भी श्रेष्ठकर । स्वर्ग में सब कुछ है, सभी सुख सुविधायें उपलब्ध है परंतु वहाँ प्रेम नहीं है । प्रेम की अनुभूति के लिए देवताओं को भी धरती पर आना पड़ता है ताक् वे संपूर्ण प्राणी बन सकें । वर्षों बाद कोई देवता धरती पर आकर उसका अनुभव कर वापस जाता है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर इस तरह का आवागमन चलता रहता है । यह एक निरन्तर प्रकिया है।इस विशाल प्रक्रिया में, अपार प्रबंधन में,जहाँ सब कुछ योजनाबद्ध है, उसमें हमें लगता है कि हम कुछ कर रहे हैं । यह इसी तरह है कि कोई कोला की बोतल खोल दे और उसमें से बुलबुले बाहर निकलें और बुलबुले सोचें, ' ओह ! मैंने ढक्कन खोल दिया।'किसी ओर ने ढक्कन खोला और तुम बस बुदबुदाते हुए बाहर निकले और तुम कब तक बुदबुदाते रहोगे ? जब बुलबुली बाहर निकलता है तो कुछ ही मिनटों में गायब भी हो जाता है । हमारा मानव जीवन भी इतना ही अल्पकालीन है और हमें लगता है कि इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी हो रहा है वह सब हमारे नियंत्रण में है । हम सभी घटनाओं और वस्तुओं को नियंत्रित कर रहे हैं । नहीं, इन सबके पीछे एक चेतना हैं जो सारा खेल खेल रही है ।
यक्ष, देवताओं से काफी निम्न कोटि के होते हैं । यह बहुत सूक्ष्म स्तर पर होता है ।तुम इसको एक कथा के रूप में से सकते हो परंतु ऐसी घटनायें अक्सर होती हैं । एक बार मैं न्यूयार्क में था । जॉन और भानु भी मेरे साथ इस घर में थे । मध्यरात्रि में लगभग दो या तीन बजे न्यूयार्क के एक यक्ष की आत्मा आयी । ऐसा पहली बार था जब मैंने किसी यक्ष का सामना किया था । वह बोला - ' मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ? ' मैंने कहा- "आपका बहुत बहुत धन्यवाद, परंतु मुझे कुछ नहीं चाहिए ।" जब भी मुझसे कोई यह पूछता है कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ तो हमेशा कहता हूँ कि कुछ भी नहीं । वह निराश होकर चला गया । दूसरे दिन सुबह सब ने बताया कि ठीक उसी समय सबको किसी की उपस्थिति का आभास हुआ, जो सुंदर और लंबा था । हॉल में विशाल ऊर्जा का आभास हुआ था । दूसरे दिन यू. एस. में मेरा एक व्याख्यान था ।जब मैं वहाँ पहँचा तो देखा कि पाँच सौ लोगों की क्षमता वाले हॉल में मात्र दस पंद्रह लोग ही उपस्थित थे । मैं समझ गया कि यह अवश्य ही उस यक्ष का ही काम है । मैंने उसे निराश कर दिया इसलिए उसने किसी को भी नहीं भेजा । मैंने कहा, 'ये तुम्हारा काम है,' और उसने स्वीकार कर लिया । उसके दो मिनटों के अंदर हॉल का दरवाजा खुला और हॉल खचाखच भर गया ।
वहाँ पर उपस्थित अपने आठ, दस आयोजकों से मैंने कहा कि मुझे उस यक्ष से कुछ माँग लेना चाहिए था । जैसे हमें कोई स्थान दिला दे, हमारे केन्द्र के लिए या कुछ और तो शायद वह प्रसन्न हो जाता । मैंने उससे कुछ नहीं माँगा इसलिए वह निराश हो गया । वह शायद कुछ सेवा करना चाहता था । बाद में मुझे यह विचार आया कि मुझे उससे कुछ माँग लेना चाहिए था ।

THIS IS TO INFORM EVERYONE THAT EVERY INFORMATION PRESENT IN THIS WEBSITE IS COLLECTED FROM NON COPYRIGHT CONTENT AVAILABLE IN INTERNET.
No comments:
Post a Comment