केन उपनिषद्
पृष्ठ २७+२८
अध्याय ०६
अनन्त की अनुभूति
प्रश्न : क्या हम निद्रा में भी अपनी पहचान बनाये रख सकते हैं ?
श्री श्री : हाँ, कुछ स्तर पर ।
प्रश्न : गुरु जी, जैसे हमें कोई सड़ा हुआ सेब मिलता है और हम उसे स्वीकार कर कूड़ेदान में फेंक कर उससे छुटकारा पा लेते हैं । अगर, मान ले कि हम बीस ऐसे लोगों से घिरे हो जिन्हें हम प्रेम करते हो और उनमें से कोई एक ऐसा हो जो हमारे मन की शांति भंग कर रहा हो । तो, हम उससे घृणा न करें परंतु ऐसा तो कह सकते हैं कि कल हम उसे अपने सामने देखना नहीं पसंद करेंगे ।
श्री श्री : हाँ, बिलकुल । तुम्हारे पास विकल्प है । तुम ऐसा कर सकते हो पर उस ही व्यक्ति के बारे में दिन-रात मत सोचते रहो । पता है, बहुत सारे ऐसे लोग होते हैं जो अपनी जगह इतने सही नहीं होते हैं तो बस मुस्कुरा कर, आराम से उनका स्थान उनको बता देना चाहिए । इसमें अंतर है - उसमें अटक जाने या उनको सुधारने या इस पर प्रश्न करने को कि ' वह व्यक्ति ऐसा क्यों है ? वह ऐसे है और हो सकता है कि कल को सुधर जाये । कोई बात नहीं, वह भी उसी एक चेतना का अंग है । तो हमें इन दोनों में संतुलन बनाना होगा ।इसलिए साहस की आवश्यकता है । इसके लिए एक कुशलता चाहिए । एक ही दुनिया में बने रहना आसान है, परंतु अतींद्रिय दुनिया और व्यावहारिक दुनिया के बीच संतुलन बनाकर रखने के लिए एक कुशलता की आवश्यकता है । यह शरीर ठोस है और मन अदृश्य है । यह जीवन इसी तरह के विरोधात्मक संयोग से बना है ।
प्रश्न : गुरुजी मेरे दो प्रश्न हैं - वस्तु से इंद्रियों और इंद्रियों से बुद्धि और बुद्धि से स्मृति कैसे जायें ?
श्री श्री : यह ही ध्यान है । ऐसा हम हर समय करते ही रहते हैं । हम पर्यावरण से अपना ध्यान अपने शरीर की ओर ले जाते हैं और शरीर को महसूस करने लगते हैं । अपनीआँखों को जोर से बंद करो और खोलो । शरीर का अनुभव करो । तुम्हारी चेतना सदैव तुम्हारे शरीर में स्थित रहती है । तुम योग निद्रा में क्या करते हो ? सजगता पूर्वक अपनी चेतना को शरीर के विभिन्न अंगों में महसूस करते हो । ऐसा नहीं है कि वह, वहाँ उपस्थित नहीं है अन्यथा तुम मृत होते । तुम्हारी चेतना तुम्हारे शरीर में पहले से ही विद्यमान है परंतु इस प्रक्रिया में तुम पूरी सजगता के साथ शरीर के विभिन्न अंगों में उसे महसूस करते हो । वह चेतना जो तुम्हारे पूरे शरीर में बिखरी हुई है उसे ही तुम शरीर के विशिष्ट अंग में केंद्रित करते हो । जब तुम उसे अपने बाँयी ओर केंद्रित करते हो तो तुम्हें दाँये पैर से अधिक बाँये पैर का आभास होता है और इसी तरह तुम आगे बढ़ते हो । हम ऐसे ही अपनी सजगता को वस्तु से इंद्रियाँ और इंद्रियों से विचारों और मन की ओर ले जाते हैं । इसी तरह कुछ समय पश्चात तुम बस सब छोड़ कर एक गहरे विश्राम का अनुभव करते हो ।

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