प्रश्न ः गुरु के अनुशासन की परम्परा का क्या महत्व है ?
श्री श्री ः इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता इसको समझना शिष्य के ऊपर निर्भर करता है। जिस तरह समुद्र में लहरें उठती हैं उसी तरह इच्छाएं भी एक के बाद एक आती रहती हैं। इसलिए अपनी इच्छाओं को एक तरफ रखो और वही करो जो गुरु की इच्छा है। ऐसा करने से मन खोखला और खाली हो जाता है और अंदर आप हल्का महसूस करने लगते हैं। जीवन प्रसन्नता और दुख से आगे बढ़ जाता है।आपकी सारी इच्छाएं और अनिच्छायें अपने आप चली जाती हैं। इसीलिए कहा गया है - 'न गुरुर अधिकम् , न गुरुर अधिकम् , न गुरुर अधिकम्।
गुरु से बड़ा कुछ नहीं क्योंकि गुरु ही उस सर्वशक्तिमान का रूप है।इसलिए सब कुछ गुरु पर छोड़ दो और गुरु को समर्पण कर दो। संतोष इच्छाओं की पूर्ति से कभी प्राप्त नहीं होता। क्योंकि एक इच्छा की पूर्ति होती है दूसरी इच्छा जागृत हो जाती है।और यदि वह पूरी हुई तो इसीसे इच्छा उत्पन्न हो जाती है।तब मन इच्छाओं के भँवर में घूमने लगता है। कुछ इच्छाएँ आपको रात दिन परेशान करती रहती हैं।
यदि इस दुनिया में आपको कुछ परेशान करता है तो उसकी सूची में सबसे ऊपर मन होगा। मैं उसे सूची में सबसे ऊपर इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि उसे आप देख नहीं सकते।आपको लगता है कि कोई आपको परेशान कर रहा है।हो सकता है आपकी सास या बहू या पति या पत्नी आपको परेशान कर रही है। यह सब आप अपनी सूची की दूसरी श्रेणी में रखिए।यह आपका अपना मन ही है जो आपको परेशान कर रहा है।कोई दूसरा शत्रु वहाँ नहीं है।आपको यह बात समझ में आ जायेगी कि वह दूसरा और कोई नहीं है बल्कि आपका अपना मन ही है।
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