नारद भक्तिसुत्र - 3
अब मैं उसकी व्याख्या करता हूँ। अब तुम ऐसे प्रेम की तलाश में हो जिसका रूप क्या है, लक्षण क्या है, यह मैं तुम्हें बताता हूँ"।
नारद माने (ना-रद, जिसे कभी रद नही कर सकते, केन्द्र) वह ऋषि जो तुम्हें अपने केन्द्र से जोड़ देते है, अपने आप से जोड़ देते हैं। नारद महर्षि का नाम तो विख्यात है, सब ने सुना है। जहाँ जाएँ वहाँ कलह कर देते हैं नारद मुनि। कलह भी वही व्यक्ति कर सकता है जो प्रेमी हो, जिसके भीतर एक मस्ती है। जो व्यक्ति परेशान है वह कलह नहीं पैदा कर सकता, वह झगड़ा करता है। झगडा़ और कलह में भेद है।जिनकी दृष्टि में समस्त जीवन एक खेल हो गया है वह व्यक्ति तुम्हें भक्ति के बारे में बताते हैं- भक्ति क्या है- *अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:*।
असल में भक्ति व्याख्या की चीज़ नहीं है। व्याख्या दिमाग की चीज़ होती है,भक्ति एक समझ दिल की होती है, प्रेम दिल का होता है, व्याख्या दिमाग की होती है। व्यक्ति का जीवन पूर्ण तभी होता है जब दिल और दिमाग का सम्मिलन हो इसीलिए कहते हैं कि सिर्फ भाव में बह जाओगे तब भी जीवन पूर्ण नहीं होगा। और दिमाग से दिल को समझो, दिल से दिमाग को परखो।
अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:। अब हम भक्ति के बारे में व्याख्या करते है। जिसकी व्याख्या करना करीब-करीब असंभव है- वह सिर्फ नारद के लिये सम्भव है।बहुत से ऋषि हुए हैं इस देश में, उनमें से एक नारद और एक शाण्डिल्य के सिवाय किसी और ने भक्ति के बारे में व्याख्या नहीं की है। उसमें नारद ही भक्ति के प्रतीक हैं क
योंकि वे जानते हैं केन्द्र को भी और वे जानते हैं वृत्त को भी।
तब बताते हैं- *सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा*।
अब हम किसी से पूछें," ऋषिकेश कहाँ है"? तो कोई हरिद्वार जानने वाला होगा वह कहेगा,"देखो हरिद्वार जानते हो ना, ऋषिकेश हरिद्वार से पचीस किलोमीटर की दूरी पर है;उत्तरभारत में, उत्तराखंड में है।" कुछ ,समझाने के लिए भी एक निर्देशन की जरूरत है, जिसे अंग्रेजी में रेफरन्स पोइन्ट कहते हैं। *सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा*, वह भक्ति क्या है? *परमप्रेम, अतिप्रेम, प्रेम की पराकाष्ठा है।*
जब प्रेम क्या है नहीं जानते हैं, तब भक्ति कैसे समझ सकते हैं? तो कहते हैं प्रेम तो तुम जानते हो। माता का प्रेम तुमने जाना, पिता का प्रेम जाना,भाई का, बहन का प्रेम तुमने जाना, पति-पत्नि का प्रेम तुमने जाना।बच्चों के प्रति प्यार तुम्हारे अनुभव में आ गया। वस्तु के प्रति लगाव, व्यक्ति के प्रति लगाव, परिस्थिति के प्रति लगाव, जिससे मोहित होकर हम दु:खी हो जाते हैं- उस प्रेम को *जानने* पर ,कहते हैं, इस प्रेम की ही पराकाष्ठा है, भक्ति।
एक प्रेम को वात्सल्य, दुसरे को स्नेह, तीसरे को प्रेम कहते हैं-प्रीति, गौरव। इस तरह से अलग अलग नाम से हम प्रेम को जानते हैं।और इन सब तरह के प्रेम से परे जो एक प्रेम है , उसी को भक्ति कहते हैं।और इन सब प्रेम को अपने में समेटकर पूर्ण रूप से जो निकली है जीवनी ऊर्जा, जीवनी शक्ति, वही प्रेम है *सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा।*
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