प्रश्न : 'निर्वाण प्राप्त करना इतना दुष्कर क्यों है ? गुरु तुरंत ही हमारे ऊपर कृपा क्यों नहीं बरसा देते ? गुरु क्यों हमें वर्षों प्रतीक्षा करवाकर, तब हमें निर्वाण प्रदान करते हैं ?
श्री श्री : यदि तुम्हें एक मिट्टी का घड़ी बनाना हो तब उसे पकाना पड़ता है, आग में पक जाने के उपरांत उस बर्तन को आसानी से नहीं तोड़ा जा सकता है, फिर चाहे तुम उसके भीतर पानी भरो अथवा उसे ही पानी में ड़ाल दो । यदि तुम बिना पके घड़े में जल भरोगे तो कुछ ही क्षणों में न घड़ा रहेगा न उसके भीतर भरा हुआ जल । घड़ा व जल दोनों से हाथ धो बैठोगे । अर्थात् घड़े को पहले पकाना आवश्यक है, इसके उपरांत ही वह मज़बूत बनेगा, फिर चाहे उसके भीतर जल भरा जाए अथवा उसे ही पानी में फेंक दिया जाए, वह नष्ट नहीं होगा । इसी प्रकार जीवन में भी सर्वप्रथम एक सशक्त नींव पड़नी चाहिए और फिर निर्णय लेना चाहिए कि क्या करना है, कहाँ जाना है, क्या प्राप्त करना है और क्या दिया जाना चाहिए ।
भगवत गीता का ज्ञान देने के उपरांत भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा -तुम्हारी जो इच्छा हो, वह करो । ऐसा उन्होंने क्यों कहा? क्योंकि गुरु जानते हैं कि मनुष्य वही करने का निर्णय लेगा, जो उसके कर्मों ने निर्धारित किया है । एक आत्म-ज्ञानी संत किसी भी मनुष्य को अपराधी की दृष्टि से नहीं देखता क्योंकि उसे मालूम है कि सब कुछ कर्मों के फलस्वरूप ही घटित होता है । वह जानता है कि उस एक चैतन्य के द्वारा संपादित यह सब कर्मों का खेल है । कर्मों के अनवरत चल रहे खेल के कारण, कुछ मस्तिष्क में एक विशेष प्रकार की परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है और दूसरे मस्तिष्क में भिन्न प्रकार की परिस्थिति निर्मित हो रही है । जैसे ही किसी मनुष्य को इस बात ज्ञान हो जाता है, वह अपने व्यक्तित्व से बाहर आता है और तब वह जो चाहे संपादित कर सकता है ।
ज्ञान-प्राप्ति से पूर्व, प्रत्येक मनुष्य कर्मों द्वारा बँधा ,है । लोगों के समीप जाकर यह पूछना कि उन्होंने ऐसा कर्म क्यों किया, इससे कोई लाभ नहीं होगा । एक उत्तम मनुष्य भी झूठ बोल सकता है । उसे स्वयं ही मालूम नहीं होता कि वह ऐसा क्यों कर रहा है । यदि वह मुझसे आकर झूठ बोलता है तो इसका अर्थ है कि वह मुझे बहुत प्रेम करता है और वह इस बात से भी अवगत है कि मैं सब जानता हूँ । (यहाँ मैं का उपयोग गुरुजी अपने संदर्भ में कर रहे हैं) तथापि वह मुझसे झूठ बोलता है । परंतु उसके उपरांत रात भर सो नहीं सकता और मेरे समक्ष आने पर उसे शर्म महसूस होती है ।
मैं कभी उससे यह नहीं कहता, " तुम अपराधी हो । तुमने ऐसा क्यों किया ? तुमने ऐसा व्यवहार क्यों किया ? क्योंकि आत्मज्ञानी को ज्ञात होता है कि उस मनुष्य के जीवन में समय ही ऐसा चल रहा है । मुझसे झूठ बोलने के कारण वह स्वयं ही दु:ख की अग्नि में जल रहा है । मैं सब जानता हूँ, कोई बात नहीं ।आगे बढ़ो । अब तो तुम मुझसे झूठ बोल ही चुके हो ।"
मिथ्या वचन बोलने के कारण वह पहले से ही बहुत छोटा महसूस कर रहा है । यदि मैं उससे यह पूछता हूँ कि तुमने ऐसा क्यों किया, तब उन कर्मों की प्रतिकृति उस मनुष्य में और दृढ़ हो जायेगी । वह अपने आप को बहुत छोटा बना लेगा तथा और अधिक फँसता चला जायेगा ।
सतगुरु जानते हैं कि ऐसे मनुष्य को कचरे से कैसे निकालें?; कई बार लोग तुम्हारे ऊपर कचरा फेंकते हैं ।वे तुम्हें कर्ता और भोक्ता बनाते हैं और तुम उसमें फँस जाते हो । वे कहते हैं, "ये करो, वो करो", और तुम्हें कर्ता बना ही देते हैं । दूसरी स्थिति में वे कहते हैं, " तुम्हें ऐसा सुख प्राप्त होगा - वैसा सुख मिलेगा ।" और तुम्हें भोक्ता बनाते हैं । वे आकाश को स्पर्श करने का स्वप्न दिखाकर तुमसे कहते हैं, "तुम्हारे साथ ऐसा होगा-वैसा होगा ।" यह सब मिथ्या है । तुम न ही कर्ता हो और न ही भोक्ता हो । इस प्रकार से निर्मुक्त होना ही सच्चा ज्ञान है । समझ रहे हो ? पहले अपना बर्तन पकने दो । फिर उसमें पानी डालो अथवा बर्तन को ही पानी में डाल दो । तब दोनों स्थितियाँ समान ही लगेगी अर्थात् जो भी करोगे, ठीक ही होगा । यदि बिना पका घड़ा डालोगे तो न घड़ा शेष बचेगा और न ही जल ।
ॐ नमः शिवाय
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