नारद भक्तिसुत्र - 8
*प्रेम की पराकाष्ठा*
*🌴कल से आगे🌴*
हम जब भी खुश रहते हैं ,आनंद में रहते हैं,उस वक्त शरीर का कोई भान नहीं रहता।
मत्तो भवति उस उन्मत्त अवस्था को; स्तब्धो भवति ठहराव; आत्मारामोभवति- जिसमेंं हम अपनी ही आत्मा में रमण करते हैं। कोई पराया लगे ही नहीं, तब वह आत्माराम अवस्था है। जैसे यह हाथ इस शरीर से ही जुडा़ हुआ है। इस शरीर का ही अंग है।जैसे शरीर के ऊपर कपडे़। इसी तरह सब एक हैं। जितना सूक्ष्म में जाते जाओगे, तुम पाओगे कि यह सब एक ही है। स्थूल में पृथक्-पृथक् मालूम पडता है, सूक्ष्म में जाते-जाते लगता है एक ही है। जैसे जो हवा इस शरीर में आ गई वही हवा दूसरों के शरीर के भीतर भी गई। हवा को तो हम बाँट नहीं सकते न। यह मेरा है, यह तेरा - यह नहीं कह सकते। तो सूक्ष्म में जाते जाते हम पाते हैं कि एक ही है। *आत्मारामो भवति*।यदि ऐसी बात हो , तो फि़र क्या करें ? फि़र मुझे वही चाहिए। मुझे मस्त होना है, मुझे आनंदित अनुभव करना है। अभी ही होना है मुझे- यह इच्छा उठे, यह कामना उठे भीतर । तब महर्षि नारद कहते हैं-
*सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात्* ।।
यह इच्छा करनेवाली बात नहीं है। बैठकर यह न करो - मुझे भक्ति दो, मुझे भक्ति दो.......भक्ति की माँग ऐसी है, जैसे मुझे साँस दो, मुझे साँस दो। *जिस साँस से तुम बोल रहे हो 'साँस दो' वही तो है*। *साँस लेकर ही तो तुम बोल रहे हो कि मुझे साँस दो*। सा न कामयमाना- कामना की परिधि से परे है प्रेम। प्रेम की चाह मत करो। *निरोध रूपत्वात्* चाहत के निरोध होते ही प्रेम का उदय होता है।मुझे कुछ़ नहीं चाहिए या मेरे पास सब कुछ है। इन दोनों अवस्था में हम निरोधित हो जाते है। मन निरोध में आ जाता है। निरोध माने क्या? "मैं कुछ नहीं हूँ, मुझे कुछ नहीं चाहिए," या"मैं सब कुछ हूँ, मेरे पास सब कुछ है"। *सा न कामयमाना*-कामना उसी वस्तु की होती है जो अपनी नहीं है।अपना हो जाने पर कामना नहीं होती। बाजा़र में जाते हो कोई अच्छा चित्र देखते हो, -तो कहते हो,"यह मुझे चाहिए-मगर घर में जो इतने चित्र लगे हुए हैं दीवालों पर , उनपर नज़र नहीं जाती। जो अपना है नहीं ,उसको चाहते हैं। प्रेम तो आप का स्वभाव है,आप का गुण है, आप की श्वास है, आप का जीवन है, आप हो। उसको चाहने से नहीं मिलेगा।चाहने से उससे दूर जाओगे तुम, इसलिए निरोथ रूपात्वात्। *सा न कामयमाना निरोध रूपात्वात्* तालाब में लहर है, लहर शांत होते ही तालाब की शुचिता का एहसास होता है। इसी तरह मन की जो इच्छाएँ हैं, ये शांत होते ही प्रेम का उदय हो जाता है।
अब निरोध कैसै न हो? मन को शांत करे कैसे ? तब अगला सूत्र । *देखिये इन सूत्रों में यह महत्व है कि एक-एक कदम पर एक-एक सूत्र पूर्ण रूप है, अपने आप में पूर्ण है, वहीं पर तुम समाप्त कर सकते हो, आगे जाने की कोई ज़रूरत नहीं।यदी तब भी समझ में न आये तो आगे के सूत्र में उसको और समझा देते हैं।*
*निरोधस्तु लोक वेदव्यापारन्यासः*।।
निरोध-किसको रोंके ? क्या रोकना चाहिए जीवन में?
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