नारद भक्तिसुत्र - 5
*प्रेम की पराकाष्ठा*
.......... परम प्रेम जो है वह अमृतस्वरूप है, वही तुम्हारा स्वरूप है। सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति -तृप्त हो जाओ।
*यत्प्राप्त न किञ्चिद वाञ्छति*,
*न शोचति, न द्वेष्टि, न रमते, नोत्साही भवति ।।*
महर्षि नारद अगले सूत्र में कहते है -अच्छा, इसको प्राप्त करने के बाद क्या-क्या नहीं करते.....दोनों तरफ देखना पड़ता है न लक्षण।
एक तो आपने क्या पाया और आपने क्या खोया। पाया तो यह कि हमारे भीतर जो तत्त्व है वह न भीतर है, न बाहर है, सब जगह है या दोनों जगह है, और वह अमृतत्त्व है। और जिसके पाने से जीवन में कोई कमी नहीं रह जाती, यह भक्ति है और तृप्ति है। तृप्ति झलकती है जीवन में,तो यह भक्ति पाने का लक्षण हुआ।
भक्ति पाने से क्या-क्या नहीं करते- *वो यत्लब्ध्वा पुमान्*- मुझे यह चाहिए,वह चाहिए.......और चाह जिससे मिट जाती है-देखो, जीवन में सौभाग्यशाली उन्हीं को कहते है जिनके मन में चाह उठने से पहले ही पूरी हो जाये। भाग्यशाली हम उसी को कह सकते हैं जिनके भीतर चाह की कोई आवश्यकता ही न पडे़। माने भूख लगे भी नहीं, तब तक खाना सामने मौजूद हो;प्यास लगे ही नहीं मगर पानी हो,अमृत हो सामने पीने के लिए। माने चाह उठने की सम्भावना ही नहीं रहे-तो कह सकते हैं भाग्यशाली हैं।और दुसरे नंबर का भाग्यशाली, उससे ज़रा कम, चाह उठे, उठते ही पूर्ण हो जाए; माने प्यास लग रही हो आपको, तुरंत कोई पानी लेकर आए। माने चाह उठी और उसके पूर्ण होने में कोई देर न लगे। वे दूसरे नंबर के भाग्यशाली हैं।तीसरे नंबर के भाग्यशाली वे होते हैं जिनके भीतर चाह तो उठती है मगर पूरा होने में बहुत समय और परिश्रम लग जाता है। बरसों लगे रहते हैं, बहुत परिश्रम करते हैं,फिर जब चाह पूरी भी होती हैं तब भी कुछ अच्छा नहीं लगता। उसका आनंद भी नहीं ले पाते, उसकी खुशी भी नहीं अनुभव कर पाते। ये उससे भी कम भाग्यशाली हैं।दुर्भाग्यशाली उनको कहते हैं जिनके भीतर चाह उठती है परंतु वह पूरी नहीं होती।
भक्ति को पाने से जीवन में कुछ इच्छा नहीं रह जाती।क्यों? जो आवश्यक वस्तुएँ हैं,अपने आप ,जरूरत से अधिक, समय पूर्व प्राप्त होने लग जाती हैं।
*न किञ्चिद वाञ्छति न शोचति*। जब चाह ही नहीं, फिर दु:खी होने की बात ही नहीं रही। वै बैठकर दु:खी नहीं होते। दु:ख माने क्या? भूतकाल को पकडना।भूत पकड़ लिया है न। सचमुच में यह बात सच हैं,भूत सवार हो गया।बीती हुई बातों को दिमाग में ले-लेकर हम दु:खी हो जाते है। चित्त की दशा यदि देखोगे न, हर क्षण में, हर क्षण में हम बीती हुई बातों पर अफ़सोस करते रहते हैं और भविष्य में होनेवाली बातों को लेकर भयभीत होते रहते है। एक कल्पना से हम भयभीत होते हैं और स्मृति से हम दु:खी होते हैं। कल्पना और स्मृति के बीच में कहीं हम रहते हैं।भक्ति उस वर्तमान क्षण की बात है। कहते हैं, *न किञ्चिद वाञ्छति* भविष्यकाल के बारे में ये चाहिए,वो चाहिए.....यें नहीं। न शोचति। भूतकाल को लेकर अफ़सोस नहीं करते।
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