मैं शांत बैठ जाऊं जैसा मैंने सम्यक स्मृति के लिए कल ही समझाया है और अपने भीतर जो भी होता है, उसे देखूं। वासनाओं, विचारों का एक जगत भीतर है। मैं उसका निरीक्षण करूं। मैं उसे ऐसे ही देखूं जैसे कोई सागर तट पर खड़ा हो, सागर की लहरों को देखता है। कृष्णमूर्ति ने इसे निर्विकल्प सजगता, च्वाइसलेस अवेयरनेस कहा है। यह बिलकुल तटस्थ निरीक्षण है। तटस्थ होना बहुत जरूरी है। तटस्थ का अर्थ है कि मैं कोई चुनाव न करूं, न कोई निर्णय करूं। न किसी वासना को बुरा कहूं न भला कहूं।
शुभ अशुभ का निर्णय न करूं। बस देखूं। जो है, उसका मात्र साक्षी बनूं जैसे मैं दूर खड़ा हूं पृथक हूं और जानने देखने के अतिरिक्त मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे ही प्रयोजन आता है, चुनाव आता है, निर्णय आता है, वैसे ही निरीक्षण बंद हो जाता है। मैं फिर निरीक्षण नहीं, विचार करता हूं।
विचार और निरीक्षण का यह भेद समझ लें।
विचार नहीं करना है। विचार चेतन की, चेतन के भीतर ही क्रिया है। निरीक्षण चेतन के द्वारा अचेतन में प्रवेश है। और जैसे ही विचार आया, शुभ अशुभ का भेद आया, सूक्ष्म दमन प्रारंभ हो जाता है। अचेतन तब अपने द्वार बंद कर लेता है और हम उसके रहस्यों से परिचित होने से वंचित हो जाते हैं।
अचेतन अपने रहस्य विचार को नहीं, निरीक्षण को खोलता है, क्योंकि दमन के अभाव में उसके वेग और वृत्तियां सहजता से ऊपर आ जाते हैं, अपनी पूरी नग्नता में और अपनी पूरी सचाई में। और उन वेगों और वृत्तियों और वासनाओं को वस्त्र पहनने की आवश्यकता नहीं रहती है। अचेतन, नग्न और निर्वस्त्र सामने आ जाता है। और तब कैसी घबड़ाहट होती है? अपने ही भीतर के इस रूप को देख कर कैसा डर लगता है? आंखें बंद कर लेने का मन होता है और गहराई के इस निरीक्षण को छोड़ फिर वापस सतह पर लौट जाने की आकांक्षा आती है।
इस समय धैर्य और शांति की परीक्षा होती है। मैं इस क्षण को ही तप का क्षण कहता हूं। जो इस क्षण को साहस और शांति से पार कर लेते हैं, वे एक अदभुत रहस्य के और ज्ञान के धनी हो जाते हैं। वे वासनाओं की जड़ों को देख लेते हैं, वे अचेतन केंद्र भूमि में प्रविष्ट हो जाते हैं। और यह प्रवेश अपने साथ एक अलौकिक मुक्ति लाता है |
❣ ओशो ❣
साधनापथ

THIS IS TO INFORM EVERYONE THAT EVERY INFORMATION PRESENT IN THIS WEBSITE IS COLLECTED FROM NON COPYRIGHT CONTENT AVAILABLE IN INTERNET.
No comments:
Post a Comment